कर्तव्यपथ

फोटो खिंचाने की रस्म अदायगी तक रह जाएगा वृहद पौधा रोपण अभियान?

भारत में मानसून के आगमन के साथ ही वृहद पौधारोपण अभियानों की एक परंपरा सी बन गई है।

हर वर्ष भारत में मानसून के आगमन के साथ ही वृहद पौधारोपण अभियानों की एक परंपरा सी बन गई है। सरकारी विभागों, निजी संस्थानों, विद्यालयों और सामाजिक संगठनों द्वारा बड़े स्तर पर पौधारोपण के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। प्रेस रिलीज़ जारी होते हैं, फोटो खिंचते हैं, सोशल मीडिया पर हैशटैग चलाए जाते हैं और अगले दिन अखबारों की सुर्खियां बनते हैं – “फला विभाग ने लगाए इतने लाख पौधे”, “वर्ल्ड रिकॉर्ड की ओर भारतइत्यादि। लेकिन जब हकीकत की जमीन पर नज़र डाली जाती है, तो ये पौधे और संकल्प कहीं पीछे छूट जाते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 जून 2024 को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक नई पहल की शुरुआत की – #एक_पेड़_मां_के_नाम और #Plant4Mother। इसका उद्देश्य केवल पर्यावरण संरक्षण ही नहीं बल्कि समाज को एक भावनात्मक धागे में पिरोना भी था। मां के नाम पर एक पौधा लगाना, लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने का सशक्त माध्यम बन सकता है। इस अभियान के तहत सितंबर 2024 तक 80 करोड़ पौधे और मार्च 2025 तक 140 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है। यह अपने आप में एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और प्रशंसनीय योजना है। लेकिन जैसे हर बार होता आया है, सवाल फिर वही उठता है क्या यह अभियान केवल फोटो खिंचाने और दिखावे तक सिमट कर रह जाएगा?

हरियाली का दिखावा या हरियाली का समर्पण?

हर साल हम देखते हैं कि सरकारी अधिकारी, नेता, स्कूल के बच्चे, संस्था प्रमुख बड़े उत्साह से पौधारोपण कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। मीडिया को बुलाया जाता है, कैमरे के सामने पौधा रोपा जाता है, एक मुस्कुराता हुआ चेहरा फ्रेम में कैद होता है और फिरपौधा वहीं छोड़ दिया जाता है, देखभाल के बिना।

आंकड़ों की होड़

पर्यावरण मंत्रालय, राज्य सरकारें और कई गैर-सरकारी संगठन बड़े-बड़े आंकड़े पेश करते हैं – “10 लाख पौधे”, “5 करोड़ पौधे”, “विश्व रिकॉर्डआदि। लेकिन इनमें से कितने पौधे जीवित रहते हैं, इसका कोई समुचित ट्रैक नहीं होता। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल लगाए गए पौधों में से केवल 30% ही जीवित रहते हैं।

प्रबंधन और देखभाल का अभाव

पौधा लगाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसकी देखभाल नियमित पानी, खाद, सुरक्षात्मक घेरा, धूप-छांव का ध्यान आदि। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारी योजनाओं में इस पहलू को गंभीरता से नहीं लिया जाता। अधिकांश पौधे शुरुआती कुछ हफ्तों में ही मर जाते हैं। सामाजिक सहभागिता की कमी:

पौधारोपण सरकारी योजना बनकर रह जाता है। इसमें आमजन की भागीदारी बहुत सीमित होती है। यदि कोई आम व्यक्ति हिस्सा लेना भी चाहे तो उसके पास कोई सुव्यवस्थित मंच या सहयोग उपलब्ध नहीं होता।

क्या पौधारोपण महज़ 'इवेंट' बनकर रह गया है?

आज के डिजिटल युग में हर कार्य 'सोशल मीडिया फ्रेंडली' बन चुका है। पौधारोपण भी इसका अपवाद नहीं है। जैसे ही कोई अभियान घोषित होता है, स्थानीय अधिकारी, राजनेता और संस्थाएँ इसे एक PR अवसर के रूप में देखती हैं। पौधा लगाते हुए कैमरे की ओर देखकर पोज़ देना, उसके बाद तुरंत इंस्टाग्राम, फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड करना जैसे इस अभियान का मुख्य उद्देश्य बन गया है। 'ग्रीन सेल्फी' संस्कृति: आज ग्रीन सेल्फीऔर प्लांटिंग वीडियोएक ट्रेंड बन चुका है, जिसमें पौधे की वास्तविक स्थिति या प्रभाव से ज़्यादा फ़ोकस इस पर होता है कि तस्वीर कितनी 'वायरल' हो सकती है।

समाधान क्या है?

सिर्फ आलोचना करने से कुछ नहीं होगा। इस गंभीर समस्या का स्थायी समाधान खोजना ज़रूरी है। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए

1. 'एक पेड़ मां के नाम' को केवल भावनात्मक न बनाएं, जिम्मेदारी भरा अभियान बनाएं

जब कोई व्यक्ति अपनी मां के नाम पर पौधा लगाता है, तो उसमें एक व्यक्तिगत जुड़ाव होता है। इस भावना को जागरूकता, निगरानी और सामाजिक प्रतिस्पर्धा से जोड़ना ज़रूरी है।

उदाहरण के लिए

प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा कार्डदिया जाए जिसमें पौधे की जानकारी और उसकी देखरेख का शपथ पत्र हो। डिजिटल ऐप्स के माध्यम से पौधे की लोकेशन, ग्रोथ रिपोर्ट, फोटो आदि अपडेट किए जा सकें।

2. स्थानीय समुदाय की भागीदारी

ग्राम पंचायत, वार्ड समिति, RWA (Residents Welfare Association), स्कूल-कॉलेज, और सामाजिक संगठनों को जिम्मेदारी दी जाए कि वे अपने क्षेत्र में लगाए गए पौधों की देखभाल करें। गांवों में हरियाली प्रहरीया पौधा मित्रनाम से स्थानीय युवाओं की टीम बनाई जा सकती है। उन्हें मामूली मानदेय या सामाजिक मान्यता देकर प्रेरित किया जा सकता है।

3. देखभाल का बजट अलग से आवंटित हो

पौधे लगाने पर खर्च किया जाता है, लेकिन उनकी देखभाल पर नहीं। पौधारोपण के हर प्रोजेक्ट में कम से कम 30% बजट सिर्फ उनके रखरखाव के लिए अलग से निर्धारित किया जाए।

4. सामाजिक और शैक्षणिक समावेशन

स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों को पौधा पालकबनाकर उन्हें पूरे साल उस पौधे की देखरेख का जिम्मा दिया जाए। इससे उनमें जिम्मेदारी की भावना भी आएगी और पर्यावरण के प्रति समझ भी बढ़ेगी।

5. ट्रैकिंग और मॉनिटरिंग सिस्टम

टेक्नोलॉजी की मदद से हर पौधे को Geo-tag किया जा सकता है। इससे यह देखा जा सकेगा कि पौधा जीवित है या नहीं। इस प्रकार की निगरानी से योजनाओं में पारदर्शिता आएगी और जवाबदेही तय होगी।

एक पेड़ मां के नामजैसी पहलें तभी सार्थक होंगी जब वे केवल फोटो खिंचाने या रिकॉर्ड बनाने का माध्यम न बनें, बल्कि पर्यावरण के प्रति वास्तविक समर्पण और जागरूकता की मिसाल बनें। हर वह पौधा जिसे हम लगाते हैं, केवल ऑक्सीजन का स्रोत नहीं होता, वह भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक उम्मीद, एक छांव, एक सांस बनता है। जरूरत इस बात की है कि हम पौधे को रोपने के बाद उसे अपनी जिम्मेदारी समझें, उसकी देखभाल करें और जब तक वह पूर्ण वृक्ष न बन जाए, तब तक उसे छोड़ें नहीं। तभी हम सच्चे अर्थों में कह सकेंगे – "हमने मां के नाम लगाया हुआ पौधा, वृक्ष का रूप ले चुका है।